आदिकालीन हिंदी साहित्य
नामकरण, समय-सीमा, पृष्ठभूमि और प्रमुख प्रवृत्तियाँ
नामकरण: आदिकाल, वीरगाथा काल या कुछ और?
हिंदी साहित्य का इतिहास प्रायः तीन बड़े कालों में विभाजित किया जाता है – आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल। इन तीनों में आदिकाल वह प्रथम सोपान है जहाँ से हिंदी भाषा के शिशु रूप और साहित्य की प्रारंभिक धाराओं की स्पष्ट पहचान होने लगती है। यह काल केवल वीरगाथाओं का ही नहीं, बल्कि धार्मिक, दार्शनिक, लौकिक और भाषिक प्रयोगों का भी ऐसा संगम है, जिसने आगे आने वाले भक्तिकाल और रीतिकाल की आधारभूमि तैयार की।
आदिकाल के नामकरण को लेकर विद्वानों के बीच गंभीर मतभेद रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को मुख्यतः उपलब्ध वीरगाथात्मक साहित्य के आधार पर "वीरगाथा काल" नाम दिया। उनके सामने पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, बीसलदेव रासो आदि कृतियाँ प्रमुख थीं, जिनमें उत्तर भारत के विभिन्न राजाओं के युद्ध, शौर्य और पराक्रम के गाथागान का प्राधान्य था।
इसके विपरीत, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस नामकरण को सीमित माना और "आदिकाल" शब्द को अधिक उपयुक्त बताया। उनका मानना था कि इस काल में केवल वीरगाथात्मक साहित्य ही नहीं, सिद्ध, नाथ, जैन और लौकिक साहित्य की भी महत्त्वपूर्ण धाराएँ सक्रिय थीं।
अन्य नामकरण
- चारण काल / संधिकाल – डॉ. ग्रियर्सन, डॉ. रामकुमार वर्मा
- सिद्ध-सामंत युग – राहुल सांकृत्यायन
- प्रारंभिक काल – मिश्र बंधु
- बीजवपन काल – महावीर प्रसाद द्विवेदी
समय-सीमा: संवत् १०५० से १३७५
समय-सीमा के निर्धारण में भी विद्वानों में मतांतर है, किंतु सर्वाधिक मान्य मत आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है। उनके अनुसार, हिंदी साहित्य का आदिकाल संवत् १०५० से संवत् १३७५ तक माना जा सकता है, जो लगभग ९९३ ई. से १३१८ ई. के बीच का समय है।
• रामचंद्र शुक्ल: सं. १०५०–१३७५ (९९३–१३१८ ई.)
• हजारी प्रसाद: १०वीं–१४वीं शताब्दी
• अन्य: ८वीं–१४वीं शताब्दी
भाषा-परिवर्तन: अपभ्रंश से पुरानी हिंदी
भाषिक दृष्टि से यह काल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ अपभ्रंश भाषा अपनी अंतिम अवस्था में पहुँच रही थी और उससे मिलकर पुरानी हिंदी (अवहट्ठ) का गठन हो रहा था। पश्चिमी, राजस्थानी और ब्रज क्षेत्रों में डिंगल (अपभ्रंश+राजस्थानी) और पिंगल (अपभ्रंश+ब्रजभाषा) जैसी बोलियों का प्रयोग बढ़ रहा था।
राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि
राजनीतिक विखंडन
- छोटे-छोटे सामंती राज्यों का उदय (चौहान, परमार, चालुक्य)
- केंद्रीय सत्ता का पूर्ण अभाव
- राज्यों के बीच आपसी कलह
- तुर्क-अफगानी आक्रमणों की शुरुआत (तराइन युद्ध)
सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य
- जातिगत कठोरता और ऊँच-नीच का भेद
- ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का बोलबाला
- सिद्धों का उदय (वज्रयान बौद्ध, वाममार्ग)
- नाथ संप्रदाय का प्रारंभ (गोरखनाथ, हठयोग)
- जैन धर्म का पश्चिमी भारत में प्रभुत्व
आदिकालीन साहित्य की चार प्रमुख धाराएँ
- सिद्ध साहित्य
बौद्ध वज्रयान से जुड़े। प्रमुख कवि: सरहपा (दोहाकोश), लुइपा, कण्हपा।
भाषा: संधा भाषा + अपभ्रंश-मिश्रित। - नाथ साहित्य
सिद्धों के विरुद्ध हठयोग परंपरा। प्रमुख: गोरखनाथ (गोरखबानी)।
भाषा: सधुक्कड़ी (भक्तिकाल के संतों से समानता)। - जैन साहित्य
गुजरात-राजस्थान क्षेत्र। शैलियाँ: रास, चरित, फागु।
प्रमुख: शालिभद्र सूरि (भरतेश्वर बाहुबलि रास)। - रासो साहित्य (वीरगाथा)
चारण-भाट परंपरा। प्रमुख: चंदबरदाई (पृथ्वीराज रासो)।
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प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियाँ
- वीर रस + ओज गुण
- इतिहास + कल्पना का मिश्रण
- आश्रित राजभक्ति
- राष्ट्रीयता का अभाव
- छंद-विविधता (६८+ छंद पृथ्वीराज रासो में)
- डिंगल-पिंगल भाषा प्रयोग
- धार्मिक रहस्यवाद
आदिकाल का ऐतिहासिक महत्त्व
आदिकाल ने न केवल हिंदी भाषा को अपभ्रंश से मुक्त किया, बल्कि भाव, शैली और विचार – तीनों स्तरों पर भविष्य के साहित्य की नींव रखी। सिद्ध-नाथों ने आध्यात्मिकता का आधार बनाया, वहीं रासो ने राजपूत वीरता को अमर किया।
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