अध्याय 1: पुरुष विमर्श — जब मर्द बोलेगा, तब समाज सुनेगा
“विमर्शों की दुनिया में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श जैसे विषयों ने समाज के दबे हुए पक्षों को आवाज़ दी है। पर पुरुष विमर्श वह है जो अब तक चुप रहा — और उसे हम सुनें।”
✍️ भूमिका
पुरुष विमर्श कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई विरोध नहीं — बल्कि एक संवेदनशील संतुलन की मांग है। यह उस चुप्पी की आवाज़ है जो सदियों से “मर्द को दर्द नहीं होता” जैसे वाक्यों में दबा दी गई। इस अध्याय का उद्देश्य वही अदृश्यता पहचानना है और उसे शब्द देना है।
📖 परिभाषा
पुरुष विमर्श एक सामाजिक-सांस्कृतिक विश्लेषण है जो पुरुषों की भूमिका, भावनात्मक स्थिति, सामाजिक अपेक्षाएँ और पितृसत्तात्मक ढांचे में उनकी स्थिति को समझने का प्रयास करता है। यह विमर्श पुरुषों को केवल शक्ति के प्रतीक के रूप में नहीं देखता, बल्कि उन्हें संवेदनशील, जटिल और दबावों से ग्रस्त मानव के रूप में प्रस्तुत करता है।
🧠 पुरुष विमर्श की आवश्यकता
- समाज ने पुरुषों को एक निर्धारित भूमिका में बाँध दिया है: कमाने वाला, निर्णय-लेने वाला, मजबूत और भावनाहीन।
- यह भूमिका उन्हें भावनात्मक रूप से कुंठित करती है।
- पुरुषों को रोने, डरने, थकने या टूटने की अनुमति नहीं होती।
- मानसिक स्वास्थ्य, आत्महत्या और अकेलापन जैसे मुद्दे पुरुषों में अधिक हैं, पर चर्चा कम है।
📚 स्त्री विमर्श से तुलना
| पक्ष | स्त्री विमर्श | पुरुष विमर्श |
|---|---|---|
| उद्देश्य | स्त्रियों की अस्मिता, अधिकार और मुक्ति | पुरुषों की संवेदनशीलता, भूमिका और दबावों की पहचान |
| संघर्ष | पितृसत्ता से मुक्ति | पितृसत्ता के भीतर दबे भाव |
| अभिव्यक्ति | साहित्य, आंदोलन, कानून | अभी नवजात अवस्था — बढ़ती चर्चा की ज़रूरत |
🧩 प्रमुख मुद्दे
- भावनात्मक अभिव्यक्ति की कमी
- आर्थिक और पारिवारिक दबाव
- कानूनी पक्षपात और दुरुपयोग
- मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा
- लैंगिक भूमिका की सीमाएँ
🎭 साहित्यिक संदर्भ
हिंदी साहित्य में पुरुष विमर्श अभी उभर रहा है। गजानन माधव मुक्तिबोध, सुदामा पांडेय 'धूमिल' और नागार्जुन जैसी कृतियों में पुरुषों के आत्मसंघर्ष की झलक मिलती है। समकालीन लेखन और डिजिटल मंचों पर यह विमर्श धीरे-धीरे अधिक दृश्य हो रहा है।
निष्कर्ष
पुरुष विमर्श किसी स्त्री विमर्श का विरोध नहीं, बल्कि संतुलन की माँग है। जब तक हम पुरुषों की चुप्पियों को नहीं सुनेंगे, तब तक समाज की तस्वीर अधूरी रहेगी। यह अध्याय उस शुरुआत का प्रस्ताव है — संवेदनशील, न्यायपूर्ण और समावेशी संवाद की ओर।
© Himansh 🌼 | EduSerene — Book excerpt from मर्द की बात