धनबाद का खनिक : संदर्भ प्रंसग व्याख्या - के० सच्चिदानंद

के. सच्चिदानंदन: “धनबाद का खनिक” — संपूर्ण पदवार व्याख्या, संदर्भ-प्रसंग और आलोचना

के. सच्चिदानंदन — “धनबाद का खनिक”

संपूर्ण पदवार व्याख्या, संदर्भ-प्रसंग, आलोचनात्मक टिप्पणी और निष्कर्ष (साहित्यिक ‘पार्चमेंट’ बैकग्राउंड के साथ)

✍️ Himansh Yadav 🎓 M.A. Hindi (2025–26) 📚 Eduserene · Department of Hindi
तुम्हारे स्वप्न में एक सुबह कसमसाती है।
मगर तुम लौट जाते हो
कोयले की हसरतों के पास।
शताब्दियाँ उलीचले तुम
लौट जाते हो अतीत के
अग्निमुख स्रोतों और
मदमस्त खूँख़्वार पशुओं के पास ।
पार करते किसी सूर्य-दीप्त गाँव के
प्राक्-ऐतिहासिक स्वप्न,
पार करते चीखते कपालों के ढेर
कुढ़ते पितामहों के।
यह धरती पड़ी है बेपरवाह-
मेहनत से फटे हुए सीनों में
धूल और तेज़ाब
मौत बनकर आ रही है।
तुम कोयला उलीचते हो
और तुम्हारे निर्वस्त्र बच्चे
भरते हैं चकित किलकारियाँ
देखकर झुग्गी के पास
गुज़रती हुई ट्रेन ।
मेरे भाई, अनाम, अनपहचाने,
तुम जानते नहीं कि तुम्हारे बग़ैर
यह बिहार, जिसका ललाट ऊँचा है
समुद्री घोड़े-सा,
इसके दिल का धड़कना
बंद हो जाता है।
तुम्हारा मन सूख गया है,
ऊसर, जैसे दामोदर नदी
जेठ-बैसाख में।
गया के बुद्ध नहीं देते कान
तुम्हारी गुहारों पर
लेकिन कल उगेगा एक सूर्य
तुम्हारे क्षार-क्षार हृदय की लरजती हुई लौ से,
तुम देखोगे अपने पूर्वजों के स्वप्न
ट्रेन की इकलौती एकटक आँख में
धधकते ।
(मूल: मलयाळम्; हिंदी अनुवाद: गिरधर राठी)

संदर्भ

के. सच्चिदानंदन समकालीन भारतीय कविता के अग्रणी स्वरों में हैं। ‘धनबाद का खनिक’ में कवि ने श्रम, वर्ग-अन्याय और मानवीय अस्तित्व के द्वंद्व को केंद्र में रखा है। धनबाद (झारखंड) भारत के प्रमुख कोयला-क्षेत्रों में है; यही कारण है कि इस कविता में खनिक भारतीय सभ्यता की ‘अनदेखी रीढ़’ का प्रतीक बन जाता है—वह अंधेरे में रहकर प्रकाश रचता है, पर स्वयं वंचित रहता है।

प्रसंग

कविता का केंद्र एक ‘खनिक’ है—पर वह कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि समूचे मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधि है। कवि दिखाता है कि सभ्यता की गति और ऊर्जा एक ऐसे श्रम पर टिकी है जो लगातार शोषण, विषाक्त वातावरण और उपेक्षा सहता है। कविता करुणा से शुरू होकर संघर्ष-आशा की दिशा में बढ़ती है: ‘कल उगेगा एक सूर्य…’

पदवार व्याख्या

१) “तुम्हारे स्वप्न में एक सुबह कसमसाती है…” — आशा बनाम नियति

“सुबह” आशा और नये जीवन का प्रतीक है; “कोयले की हसरतें” जीविका/मजबूरी। खनिक के भीतर भी उजाले का सपना है, किंतु आर्थिक/सामाजिक संरचनाएँ उसे बार-बार उसी अंधकार की ओर लौटा देती हैं। यह बताता है कि गरीब के लिए सपना भी विलासिता बन जाता है।

२) “शताब्दियाँ उलीचले तुम…” — इतिहास का अंधेरा और शोषण की निरंतरता

“अग्निमुख स्रोत” धरती की ऊर्जा (कोयला), “खूँख़्वार पशु” उन शक्तियों के प्रतीक हैं जो श्रम का शोषण करती हैं। तकनीक बदली, इतिहास आगे बढ़ा, पर खनिक की स्थिति नहीं बदली—शोषण का स्वरूप मात्र परिवर्तित हुआ।

३) “पार करते सूर्य-दीप्त गाँव…” — अपूर्ण आकांक्षा और स्थायी वंचना

“सूर्य-दीप्त गाँव” आदर्श जीवन है; “कपालों के ढेर” इतिहास की हिंसा और मर चुके सपनों का बिंब। खनिक उस उजास तक कभी पहुँच नहीं पाता—वह बस उसे ‘पार’ करता है। यह सामाजिक/आर्थिक व्यवस्था की विफलता को रेखांकित करता है।

४) “यह धरती पड़ी है बेपरवाह…” — विषाक्त यथार्थ

“धूल” और “तेज़ाब” पर्यावरणीय विष और जीवन-घातक परिस्थितियों के प्रतीक हैं। धरती/समाज का “बेपरवाह” होना बताता है कि उत्पादन का केंद्र मनुष्य नहीं, मुनाफ़ा हो गया है।

५) “निर्वस्त्र बच्चे… झुग्गी के पास गुज़रती ट्रेन” — विकास बनाम वंचना

ट्रेन उसी कोयले से चलती है जिसे खनिक निकालता है; बच्चे उसे देखकर खुश होते हैं, पर वे स्वयं झुग्गी और अभाव में हैं। यह सभ्यता की सबसे तीखी विडंबना है—उत्पादन एक वर्ग करता है, उपभोग दूसरा।

६) “मेरे भाई, अनाम, अनपहचाने…” — करुणा से सम्मान तक

यहाँ कवि “भाई” कहकर दूरी मिटा देता है। वह मानता है कि खनिकों के बिना प्रदेश/सभ्यता की धड़कन रुक जाएगी—असल ‘नायक’ वही हैं जो गुमनाम रहते हुए भी जीवन को चलाते हैं।

७) “गया के बुद्ध नहीं देते कान…” — करुणा का बहरापन

बुद्ध करुणा के प्रतीक हैं, फिर भी आधुनिक व्यवस्था में करुणा निष्क्रिय/बधिर हो गई है। यह नैतिकता और धर्म का सामाजिक दर्द के प्रति मौन रह जाना है—कविता इसी मौन के ख़िलाफ़ आवाज़ बनती है।

८) “लेकिन कल उगेगा एक सूर्य…” — चेतना, लौ और परिवर्तन

“क्षार-क्षार हृदय” जला-सूखा मन है; “लरजती लौ” चेतना/आशा। ट्रेन की “एकटक आँख” सामूहिक जागरण/नयी दिशा का रूपक है। कवि का आशावाद कर्म-आधारित है—परिवर्तन उसी श्रम से आएगा जिसे अब तक शोषित किया गया है।

आलोचनात्मक टिप्पणी

कविता तीन स्तरों पर एक साथ काम करती है—(१) ठोस यथार्थ: गरीबी, विषाक्त काम-परिस्थिति; (२) प्रतीकात्मक विन्यास: कोयला, ट्रेन, सुबह, लौ, सूर्य; (३) दार्शनिक निष्कर्ष: मनुष्य की अस्मिता और न्याय-सम्बद्ध भविष्य। सच्चिदानंदन की भाषा संक्षिप्त, बिंबात्मक और तीखी है; हर पंक्ति हथौड़े की चोट की तरह सामाजिक चेतना को जगा देती है।

“निर्वस्त्र बच्चे—ट्रेन—झुग्गी” का दृश्य आधुनिक ‘विकास’ के पाखंड को उजागर करता है। “बुद्ध” का उल्लेख करुणा की ऐतिहासिक परंपरा को वर्तमान की संवेदनहीनता के बरक्स खड़ा करता है। अंत का आशावाद भावुक नहीं, क्रांतिकारी है—आशा उसी श्रम की राख से जन्म लेती है जिसे इतिहास ने अनदेखा किया।

निष्कर्ष

‘धनबाद का खनिक’ श्रम की अस्मिता, वंचना और उम्मीद का एक साथ दस्तावेज़ है। यह कविता बताती है कि सभ्यता की असली शक्ति वही लोग हैं जो अंधेरे में उतरकर रोशनी रचते हैं। सच्चिदानंदन का संदेश स्पष्ट है—अंधकार में ही प्रकाश का बीज छिपा होता है। कल का ‘सूर्य’ उसी ‘लरजती लौ’ से जन्म लेगा जो आज हर खनिक के हृदय में पल रही है।

About the Author

Himansh Yadav — Eduserene

एम.ए. हिंदी (सेशन 2025–26). रुचि—कविता व्याख्या, आलोचना और अकादमिक नोट्स। उद्देश्य—हिंदी पाठकों तक सरल, भरोसेमंद और साहित्यिक सौंदर्य के साथ सामग्री पहुँचाना।

“कविता हमें हमारी थकान से नहीं, हमारे अर्थ से मिलाती है।”

“शब्द तब सच्चे होते हैं जब वे भीतर शांति और बाहर जिम्मेदारी रचें।”

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