बनलता सेन — जीवनानंद दास
संपूर्ण कविता, संदर्भ-प्रसंग, व्याख्या, आलोचना और निष्कर्ष
वहाँ मलय सागर तक, सिंहल के समुद्र से,
रातभर अन्धकार में मैं भटका हूँ,
था अशोक औ’ बिम्बिसार के धूसर लगते संसारों में —
थका हुआ हूँ — चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन;
शान्ति किसी ने दी तो वह थी — नाटोर की बनलता सेन!
मुख श्रावस्ती का शिल्पित हो; दिशाएँ खो दी हों नाविक ने,
फिर वह देखे हरी पत्तियों वाला कोई द्वीप अचानक —
उसी तरह देखा था उसको अन्धकार में; पूछा उसने:
‘कहाँ रहे इतने दिन?’ — चिड़ियों के घोंसले सरीखी आँखों से देखती हुई बस — नाटोर की बनलता सेन।
चील पोंछ लेती डैनों से गन्ध धूप की; बुझ जाते रंग;
थम जाती सारी आवाज़ें; चमक जुगनुओं की रह जाती;
सब चिड़ियाँ — सब नदियाँ — अपने घर को जातीं;
रह जाता केवल अन्धकार — सामने वही बनलता सेन!
संदर्भ
जीवनानंद दास (1899–1954) आधुनिक बंगला कविता के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं। ‘बनलता सेन’ उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतीक-समृद्ध रचनाओं में गिनी जाती है। यह कविता इतिहास, भूगोल और स्मृति के सहारे आत्मा की शांति की खोज को रूपायित करती है—जहाँ ‘बनलता सेन’ केवल एक स्त्री नहीं, बल्कि विश्रांति, मुक्ति और शाश्वत सौंदर्य का प्रतीक बन जाती है।
प्रसंग
कविता तीन पदों में एक आंतरिक यात्रा का आरेख बनाती है—पहले पद में युगों-युगों की भटकन और थकान, दूसरे पद में ‘बनलता सेन’ के रूप में आकस्मिक शांति-द्वीप का साक्षात्कार, और तीसरे पद में संध्या/अंधकार की प्रतीकाभिव्यक्ति, जहाँ जीवन का लेन-देन चुकने पर भी एक आत्मिक प्रकाश शेष रह जाता है।
विस्तृत व्याख्या
‘बनलता सेन’ एक प्रतीकात्मक यात्रा-कविता है जिसमें कवि जीवन की थकान और दिशा-भ्रम के बाद अंततः आत्मिक शांति की खोज में ‘बनलता सेन’ तक पहुँचता है। आरंभ में कवि ‘कल्पों’ की यात्रा, अशोक-बिम्बिसार, सिंहल-मलय जैसे इतिहास-भूगोल के संकेतों से एक ‘सार्वकालिक’ भटकन का बोध कराता है। यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, मानसिक और आध्यात्मिक भी है—दुनिया ‘जीवन के फेन से भरे समुद्र’ की तरह है, जहाँ कवि थक कर विश्रांति तलाशता है।
इस थकान में उसे एक ही शरण मिलती है—‘नाटोर की बनलता सेन’। यहाँ ‘बनलता’ एक स्त्री-स्मृति जरूर है, पर उससे बढ़कर वह ‘आत्मा का तट’ है: घने केशों का अंधकार, ‘विदिशा’ और ‘श्रावस्ती’ जैसी उपमाएँ शारीरिक सौंदर्य से आगे बढ़कर एक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक उजास का रूप ले लेती हैं। दिशाहीन नाविक का अचानक हरियाली-द्वीप देख लेना—यह क्षण जीवन में आशा के पुनर्जन्म का प्रतीक है।
अंतिम पद में संध्या, ओस, चील, जुगनू, कोरी पांडुलिपि—ये सभी प्रतीक समय के थम जाने, रंगों के बुझने और शांति के उतरने का दृश्य रचते हैं। ‘सब चिड़ियाँ—सब नदियाँ—अपने घर को जातीं’—यह पंक्ति जीवन के व्यापार के चुकने का सूक्ष्म बिंब है। तब रह जाता है ‘केवल अंधकार’, और उसी अंधकार के सामने ‘बनलता सेन’—यानी स्मृति/शांति/प्रेम का वह आंतरिक आलोक—उपस्थित रहता है।
कविता इस निष्कर्ष की ओर ले जाती है कि मनुष्य की यात्रा का अंतिम ठिकाना किसी बाह्य भूगोल में नहीं, बल्कि अपने भीतर की शांति में है। ‘बनलता सेन’ वही अंतर्मुखी विश्रांति है, जहाँ पहुँचकर युगों-युगों की थकान उतर जाती है।
आलोचनात्मक टिप्पणी
यह कविता आधुनिक बंगला काव्य में प्रतीकवाद का उन्नत मानक प्रस्तुत करती है। इतिहास-भूगोल के संकेत कविता को ‘व्यक्तिगत’ से ‘सार्वभौमिक’ अनुभव में रूपांतरित करते हैं। यहाँ ‘बनलता सेन’ स्त्री-मूर्ति होते हुए भी शांति, स्मृति और मुक्ति का मूर्तिमान रूपक है—यही वजह है कि कविता प्रेम-संवेग से आगे बढ़कर अस्तित्ववादी प्रश्नों को छूती है।
भाषा-शैली संवेदनशील और चित्रात्मक है; ध्वनि, रंग और सुगंध के बिंब कविता को बहु-इंद्रिय अनुभव बना देते हैं। दृश्य-प्रतिमा (चील की डैनों से धूप की गंध पोंछना, जुगनुओं की चमक, कोरी पांडुलिपि) पाठक के भीतर एक लय छोड़ जाती है। इस गेयता के साथ दार्शनिक गंभीरता का संतुलन ‘बनलता सेन’ को कालजयी बनाता है।
निष्कर्ष
‘बनलता सेन’ केवल प्रेम-कविता नहीं; यह जीवन की थकान, स्मृति और आत्मिक मुक्ति का दार्शनिक आख्यान है। संध्या के उतरते ही जब ‘जीवन का लेन-देन’ चुक जाता है, तब जो शांति शेष रहती है—वह ‘बनलता’ की तरह ही अंतरंग और स्थिर है। यही स्थिरता मनुष्य को अपने ‘घर’—भीतर की निस्तब्धता—तक पहुँचाती है।
जीवनानंद दास ने इस कविता में भाषा की कोमलता और प्रतीक-नवीनता से एक ऐसा अनुभव रचा है जो समय से परे जाकर भी पाठक का अपना लगने लगता है। अंततः ‘बनलता सेन’ हर उस मनुष्य की स्मृति है जो भटकन के बाद शांति तक पहुँचना चाहता है।
