“पाश: मैं अब विदा लेता हूँ — व्याख्या और आलोचना”

पाश: “मैं अब विदा लेता हूँ” — संपूर्ण कविता, संदर्भ-प्रसंग, विस्तृत व्याख्या और आलोचना

पाश: “मैं अब विदा लेता हूँ”

संपूर्ण कविता का पाठ, संदर्भ-प्रसंग, 500 शब्दों की व्याख्या, 300 शब्दों की आलोचना और निष्कर्ष

✍️ Himansh Yadav 🎓 M.A. Hindi (2025–26) 📚 Department of Hindi · C.M.P. Degree College
पाशआधुनिक कविता कविता व्याख्याजनवादी काव्य हिंदी साहित्य
अब विदा लेता हूँ, मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ।
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी —
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं।
उस कविता में महकते धनिए का ज़िक्र होना था,
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था।
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस,
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था।
और जो कुछ मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा,
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था।
उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था,
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था,
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं।
उस कविता में तेरे लिए, मेरे लिए,
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था — मेरी दोस्त।
लेकिन बहुत बेस्वाद है इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना।
और यदि मैं लिख भी लेता शगुनों से भरी वह कविता,
तो वह वैसे ही दम तोड़ देती —
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर।
मेरी दोस्त, कविता बहुत निसत्व हो गई है,
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं।
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है।
युद्ध में हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है —
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह।
और इस स्थिति में, मेरी तरफ़ चुंबन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना,
या तेरी कमर के लहरने की समुद्र के साँस लेने से तुलना करना,
बड़ा मज़ाक़-सा लगता था।
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।
तुम्हें मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को एक ही कतार में खड़ा करना,
मेरे लिए संभव नहीं हुआ।
और अब मैं विदा लेता हूँ, मेरी दोस्त।
हम याद रखेंगे कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गाँव के टीले रात को फूलों की तरह महक उठते हैं,
और चाँदनी में पगे ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेटकर
स्वर्ग को गाली देना — बहुत संगीतमय होता है।
हाँ, यह हमें याद रखना होगा,
क्योंकि जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता,
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है।
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ
उन सभी हसीन चीज़ों का जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं,
और उन आम जगहों का जो हमारे मिलने से हसीन हो गईं।
मैं शुक्रिया करता हूँ अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का,
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में।
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का,
जो तुम्हारी लरसती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था।
टिंडों से उतरी कपास का,
जिसने कभी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कुराकर हमारे लिए सेज बन गई।
गन्नों पर तैनात पिद्दियों का,
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी।
जवान हुए गेहूँ की बालियों का,
जो हमें बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रहीं।
मैं शुक्रगुज़ार हूँ सरसों के नन्हें फूलों का,
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का।
मैं आदमी हूँ — बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ,
और उन सभी चीज़ों के लिए जिन्होंने मुझे बिखरने से बचाए रखा,
मेरे पास शुक्राना है।
प्यार करना बहुत ही सहज है —
जैसे जुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना,
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से किसी गुफा में पड़े रहकर
ज़ख़्म के भरने के दिन की कल्पना करना।
प्यार करना और लड़ सकना —
जीने पर ईमान ले आना, मेरी दोस्त।
यही होता है धूप की तरह धरती पर खिल जाना,
और फिर आलिंगन में सिमट जाना,
बारूद की तरह भड़क उठना।
प्यार करना और लड़ सकना —
जीने पर ईमान ले आना।
तू यह सब भूल जाना मेरी दोस्त,
सिवाय इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी,
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबकर जीना चाहता था।
मेरे भी हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त,
मेरे हिस्से का भी जी लेना।
मैं अब विदा लेता हूँ।

संदर्भ

यह कविता उस समय की है जब समाज हिंसा, युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता में उलझा हुआ था। कवि का मानना है कि केवल सौंदर्य-वर्णन से कविता का दायित्व पूरा नहीं होता; उसे अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए। इसीलिए वह प्रेमिका से विदा लेते हुए भी जीवन, कविता और संघर्ष के बड़े नैतिक प्रश्नों पर विचार करता है।

प्रसंग

कवि एक ‘अनश्वर’ प्रेम-कविता लिखना चाहता था—जिसमें प्रकृति की सौंधी महक, देह की ऊष्मा और रिश्तों की सच्चाई समा सके। लेकिन ‘हथियारों के नाख़ून’ बढ़े समय में ऐसी कविता निस्सार लगती है; इसलिए वह तय करता है कि कविता से पहले प्रतिरोध ज़रूरी है। यहीं से निजी प्रेम सामाजिक अर्थ ग्रहण करता है और कवि विदाई के क्षण में भी मनुष्य होने की जिम्मेदारी स्वीकारता है।

विस्तृत व्याख्या (लगभग 500 शब्द)

अवतार सिंह ‘पाश’ की कविता “मैं अब विदा लेता हूँ” आधुनिक भारतीय कविता की उन दुर्लभ रचनाओं में है, जो प्रेम, जीवन और संघर्ष—तीनों के बीच एक गहरी वैचारिक सेतु बनाती हैं। इस कविता में कवि एक “विदाई” की मुद्रा में दिखाई देता है, पर यह केवल किसी प्रिय से बिछुड़ने की विदाई नहीं है; यह उस संवेदनशील कवि की विदाई है जो इस हिंसक और जटिल समय में अपने अस्तित्व को एक नई भूमिका में देखता है—कवि से योद्धा बनने की भूमिका में।

कविता की शुरुआत में पाश एक आत्मीय संबोधन के साथ कहते हैं—“अब विदा लेता हूँ मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ।” कवि कहना चाहता है कि उसने एक ऐसी कविता लिखनी चाही थी, जिसे उसकी प्रिय सारी उम्र पढ़ती रहे। यह कोई क्षणिक रचना नहीं, बल्कि एक अमर कविता की आकांक्षा है—ऐसी कविता जिसमें जीवन की संपूर्ण सुंदरता समा सके।

कवि उस कविता में “महकते धनिए”, “ईख की सरसराहट”, “ओस की बूँदें”, “दूध की झाग”, “छाती की नरम शॉल” जैसी चीज़ों का ज़िक्र करना चाहता था। ये सारे बिंब ग्रामीण जीवन, श्रम, प्रेम और सादगी के प्रतीक हैं। यहाँ कविता जीवन के सबसे स्वाभाविक रूपों की खोज करती है। लेकिन यही वह क्षण है जहाँ कवि का स्वप्न यथार्थ से टकराता है।

पाश कहते हैं कि यह दुनिया “उलझे हुए नक़्शे” की तरह है। आज जब “हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं,” तब कविता में केवल सुंदरता का वर्णन एक तरह की बेईमानी है। कवि स्वीकार करता है कि यदि वह उस “शगुनों से भरी कविता” को लिख भी लेता, तो वह भी दम तोड़ देती—क्योंकि हिंसा के समय में सौंदर्य की भाषा खोखली लगने लगती है।

यहाँ पाश की दृष्टि स्पष्ट है: कविता को केवल भावनाओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए; उसे अन्याय और हिंसा के विरुद्ध प्रतिरोध की चेतना बनना चाहिए। इसलिए कवि कहता है—“अब हर तरह की कविता से पहले, हथियारों के खिलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है।” यह कविता की आत्मा है। पाश के लिए कविता केवल शब्दों का सौंदर्य नहीं, बल्कि जीवन की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

इस बिंदु पर वह प्रेम और राजनीति, सौंदर्य और संघर्ष—दोनों को जोड़ देता है। वह मानता है कि जब समाज रक्तरंजित हो, तब प्रेम की तुलना “समुद्र की साँस” या “धरती के आकार” से करना मज़ाक़ प्रतीत होता है। फिर भी, कविता निष्ठुर यथार्थ में रुकती नहीं। कवि जीवन की स्मृतियों में लौटता है—वह अपने गाँव के टीले, हवा, घास, कपास, गन्नों, सरसों के फूलों को याद करता है। ये सारी चीज़ें उसके लिए उस जीवन-ऊर्जा का प्रतीक हैं, जिन्होंने उसे “बिखरने से बचाए रखा।” यह स्मृति, पाश की कविता में, प्रतिरोध का ही दूसरा रूप है—क्योंकि स्मरण करना, जीवन को पुनः ग्रहण करना है।

अंततः कवि कहता है—“प्यार करना और लड़ सकना, जीने पर ईमान ले आना, मेरी दोस्त।” यह पंक्ति इस कविता की दार्शनिक परिणति है। यहाँ प्रेम और संघर्ष एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं। पाश के लिए प्रेम का अर्थ है साहस—जीवन के पक्ष में खड़ा रहना, अन्याय के विरुद्ध बोलना, और अपने हिस्से की ज़िंदगी पूरी निष्ठा से जीना। समापन में—“मेरे हिस्से का भी जी लेना, मेरी दोस्त”—मृत्यु या पराजय का नहीं, जीवन के प्रति गहरी आस्था का घोष है।

आलोचनात्मक टिप्पणी (लगभग 300 शब्द)

अवतार सिंह ‘पाश’ की कविता “मैं अब विदा लेता हूँ” आधुनिक हिंदी कविता के जनवादी स्वर की सबसे सशक्त अभिव्यक्तियों में से एक है। इस कविता में कवि ने व्यक्तिगत प्रेम की अनुभूति को सामाजिक यथार्थ और नैतिक संघर्ष से जोड़कर प्रस्तुत किया है। यहाँ प्रेम केवल भावनात्मक या शारीरिक नहीं है, बल्कि यह जीवन के पक्ष में खड़े होने की चेतना है।

कवि की दृष्टि में कविता का उद्देश्य केवल सौंदर्य का सृजन नहीं, बल्कि अन्याय और हिंसा के विरुद्ध प्रतिरोध की भावना जगाना है—“अब हर तरह की कविता से पहले, हथियारों के खिलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है।” यह पंक्ति कविता की आत्मा और कवि की जनवादी प्रतिबद्धता का साक्ष्य है।

पाश के यहाँ प्रेम और संघर्ष विरोधी नहीं, पूरक हैं। वह प्रेम को पलायन नहीं मानते; बल्कि उसे जीवन की सबसे बड़ी नैतिक शक्ति के रूप में देखते हैं—“प्यार करना और लड़ सकना, जीने पर ईमान ले आना।” भाषिक-शैली के स्तर पर कविता प्रभावशाली है: लोकजीवन की गंध, आधुनिक चेतना की तीव्रता और सजीव बिंब—धनिया, ईख, ओस, हथियार, बारूद—जीवन और संघर्ष के द्वंद्व को उभारते हैं।

पाश का स्वर विद्रोही होने के साथ संवेदनशील है। उनका रचनात्मक प्रतिरोध उन्हें अपने समय का नैतिक सेनानी बनाता है। कविता आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह मनुष्य को याद दिलाती है कि—जीवन का अर्थ है प्रेम करना, संघर्ष करना और “जीने पर ईमान” रखना।

निष्कर्ष (लगभग 200 शब्द)

“मैं अब विदा लेता हूँ” प्रेम, संघर्ष और जीवन के त्रिवेणी-संगम की प्रतिनिधि रचना है। कवि ने व्यक्तिगत प्रेम को सामाजिक-नैतिक चेतना से जोड़ा और बताया कि हिंसा के समय में कविता का काम केवल सौंदर्य-वर्णन नहीं, बल्कि प्रतिरोध है। पाश के लिए प्रेम साहस है—जीवन के पक्ष में खड़े होने की ऊर्जा।

समापन की पंक्ति—“मेरे हिस्से का भी जी लेना, मेरी दोस्त”—विदाई नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता की घोषणा है। कविता पाठक के भीतर जीवन के प्रति ईमान, मानव-गरिमा की रक्षा और अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े होने की प्रेरणा जगाती है। इस दृष्टि से यह रचना आज भी उतनी ही अर्थवान और जरूरतमंद है।

© Himansh Yadav · Eduserene (Blogspot)
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